हरि हा आनंदाचा कंद । आनंदाचा कंद ।
उभा पुढें भक्तसखा गोविंद ॥ हरि०॥ध्रु०॥
सजल नीरदश्यामतनु नवरत्नखचितसौवर्ण
मुकुट शिरपेंच तुरा वरि कलगि विराजित
कुटिलालक निटिलासि कस्तुरी विराजित
कुटिलालक निटिलासि कस्तुरी-तिलक
केशरीगंध ॥ हरि०॥१॥
श्रवणिं मनोहर मकरकुंडलें फुल्ल गल्ल
कर्णांत दीर्घ-सुप्रसन्नलोचन इंदुवदन तिल
पुष्पनासिका कुंदरदन हनु अधरबिंबगत
हास्य मंदमंद ॥ हरि० ॥२॥
कंबुकंठ कौस्तुभाभरण शुभपटीरपंक नव-
द्रवरुषितपविरांस केयूरविभूषित कनक-
कटकसह-रत्नतोडर-प्रभानुभासित शंख
सुदर्शन-गदा-सरोरुह लसच्चतुर्भुज
ललितांगुलिधृत रत्नमुद्रिकावृंद ॥ हरि०॥३॥
विशाल गक्षस्थलीं रमाकुचकुंभकुंकुमालेप-
लिप्त श्रीवत्सलांछिता सुवर्णयज्ञोपवीत
मध्य वलित्रयबंधुर निम्ननाभि तनु
रोमराजि लुठदुत्तरीयपट परिजातनव-
कुसुम तुलसिकामिश्रहार-पादाप्रचुंबि
नभ भरुनि जयाचा मधुर सूटला गंध ॥ हरि०॥४॥
कटीतटीं जरिकांठि पीतकौशेयवासपट
वास सुवासित विचित्र शृंखल अगणित
मणी झणझणित मंजुलकणित किंकेणी
विपुलरोरुद्वंद्व विराजित जानुजंघ सुकुमार
सरलतर कनकवलयुक्त रत्नतोडरे मंजुमंजु
सिंजान हीर मंजीर परिष्कृत सहज रक्त
मृदु वज्र अंकुश ध्वजांबुजांकित वृत्तवृत्त
उत्तुंग-रक्तनखचक्रवाल सत्पुण्यचंद्रिका ध्वस्त
महध्दृदयांघतमस मंदाकिनी माहेर चरणयुग
धृतरणरणिक जयाच्या क्षणिक ध्यानें तुटती
झटिति सर्व भवबंध ॥ हरि० ॥५॥
कोटिकोटि कंदर्प रुपलावण्य-दर्पहर ध्यान
मनोहर अनंतजन्म मनोमल पटली निर्मूलनकर ।
भक्तिगम्य तापत्रयभंजन आसेजनक ध्यानिं पाहतां
वाटे जणुं नयनांत भरावें हुंगावें दृढ आलिंगावें
कीं चुंबावें विसरतसे संसार सर्वही संतत
याचा पंत विठ्ठला सहज लागला छंद ॥ हरि०॥६॥
— विठोबा अण्णा दफ्तरदार
उभा पुढें भक्तसखा गोविंद ॥ हरि०॥ध्रु०॥
सजल नीरदश्यामतनु नवरत्नखचितसौवर्ण
मुकुट शिरपेंच तुरा वरि कलगि विराजित
कुटिलालक निटिलासि कस्तुरी विराजित
कुटिलालक निटिलासि कस्तुरी-तिलक
केशरीगंध ॥ हरि०॥१॥
श्रवणिं मनोहर मकरकुंडलें फुल्ल गल्ल
कर्णांत दीर्घ-सुप्रसन्नलोचन इंदुवदन तिल
पुष्पनासिका कुंदरदन हनु अधरबिंबगत
हास्य मंदमंद ॥ हरि० ॥२॥
कंबुकंठ कौस्तुभाभरण शुभपटीरपंक नव-
द्रवरुषितपविरांस केयूरविभूषित कनक-
कटकसह-रत्नतोडर-प्रभानुभासित शंख
सुदर्शन-गदा-सरोरुह लसच्चतुर्भुज
ललितांगुलिधृत रत्नमुद्रिकावृंद ॥ हरि०॥३॥
विशाल गक्षस्थलीं रमाकुचकुंभकुंकुमालेप-
लिप्त श्रीवत्सलांछिता सुवर्णयज्ञोपवीत
मध्य वलित्रयबंधुर निम्ननाभि तनु
रोमराजि लुठदुत्तरीयपट परिजातनव-
कुसुम तुलसिकामिश्रहार-पादाप्रचुंबि
नभ भरुनि जयाचा मधुर सूटला गंध ॥ हरि०॥४॥
कटीतटीं जरिकांठि पीतकौशेयवासपट
वास सुवासित विचित्र शृंखल अगणित
मणी झणझणित मंजुलकणित किंकेणी
विपुलरोरुद्वंद्व विराजित जानुजंघ सुकुमार
सरलतर कनकवलयुक्त रत्नतोडरे मंजुमंजु
सिंजान हीर मंजीर परिष्कृत सहज रक्त
मृदु वज्र अंकुश ध्वजांबुजांकित वृत्तवृत्त
उत्तुंग-रक्तनखचक्रवाल सत्पुण्यचंद्रिका ध्वस्त
महध्दृदयांघतमस मंदाकिनी माहेर चरणयुग
धृतरणरणिक जयाच्या क्षणिक ध्यानें तुटती
झटिति सर्व भवबंध ॥ हरि० ॥५॥
कोटिकोटि कंदर्प रुपलावण्य-दर्पहर ध्यान
मनोहर अनंतजन्म मनोमल पटली निर्मूलनकर ।
भक्तिगम्य तापत्रयभंजन आसेजनक ध्यानिं पाहतां
वाटे जणुं नयनांत भरावें हुंगावें दृढ आलिंगावें
कीं चुंबावें विसरतसे संसार सर्वही संतत
याचा पंत विठ्ठला सहज लागला छंद ॥ हरि०॥६॥
— विठोबा अण्णा दफ्तरदार