| गिरिशिखरें, वनमालाही | दरीदरी घुमवित येई ! | |
| कड्यांवरुनि घेऊन उड्या | खेळ लतावलयीं फुगड्या | |
| घे लोळण खडकावरती, | फिर गरगर अंगाभंवतीं; | |
| जा हळुहळु वळसे घेत | लपत-छपत हिरवाळींत; | |
| पाचूंची हिरवीं रानें | झुलव गडे, झुळझुळ गानें ! | |
| वसंतमंडप—वनराई | आंब्याची पुढतीं येई. | |
| श्रमलासी खेळुनि खेळ | नीज सुखें क्षणभर बाळ ! | |
| हिं पुढचीं पिवळीं शेतें | सळसळती–गाती गीते; | |
| झोप कोठुनी तुला तरी ? | हांस लाडक्या ! नाच करी. | |
| बालझरा तूं बालगुणी, | बांल्यचि रे ! भरिसी भुवनी ! | |
| बालतरू हे चोहिंकडे | ताल तुला देतात गडे ! | |
| प्रेमभरें त्यांवर तूंही | मुक्त-मणि उधळुनि देई ! | |
| बुदबुद–लहरी फुलवेली | फुलव सारख्या भंवतालीं | |
| सौंदर्ये हृदयांमधलीं | दे विश्वी उधळून खुलीं ! | |
| गर्द सावल्या सुखदायी | वेलींची फुगडी होई ! | |
| इवलालीं गवतावरतीं | रानफुलें फुलती, हंसती. | |
| झुलवित अपुले तुरे-तुरे | निळीं लव्हाळीं दाट भरे. | |
| जादूनेच तुझ्या बा रे ! | वन नंदन बनलें सारें ? | |
| सौंदर्याचा दिव्य झरा | बालवसंतचि तूं चतुरा; | |
| त्या लहरीलहरींमधुनी | स्फूर्ति दिव्य भरिसी विपिनीं. | |
| आकाशामधुनी जाती | मेघांच्या सुंदर पंक्ती; | |
| इंद्रधनूची कमान ती | ती संध्या खुलते वरतीं, | |
| रम्य तारका लुकलुकती | नीलारुण फलकावरतीं; | |
| शुभ्र चंद्रिका नाच करी | स्वर्गधरेवर एकपरी; | |
| हिं दिव्यें येती तुजला | रात्रंदिन भेटायाला ! | |
| वेधुनि त्यांच्या तेजानें | विसरुनियां अवघी भानें, | |
| धुंद हृदय तव परोपरी | मग उसळी लहरीलहरी | |
| त्या लहरींमधुनी झरती | दिव्य तुझ्या संगीततती ! | |
| नवल न, त्या प्राशायाला | स्वर्गहि जर भूवर आला ! | |
| गंधर्वा ! तव गायन रे | वेड लाविना कुणा बरें ? | |
| पर्वत हा, ही दरीदरी | तव गीतें भरलीं सारीं. | |
| गाण्यानें भरलीं रानें | वर-खाली गाणें ! गाणें ! | |
| गीतमय स्थिरचर झालें ! | गीतमय ब्रम्हांड डुलें ! | |
| व्यक्त तसें अव्यक्तहि तें | तव गीतें डुलतें-झुलतें ! | |
| मुरलीच्या काढित ताना | वृंदावनिं खेळे कान्हा; | |
| धुंद करूनि तो नादगुणें | जडताही हंसवी गानें; | |
| दिव्य तयाच्या वेणुपरी | तूंहि निर्झरा ! नवलपरी | |
| गाउनि हें झुळझुळ गान | विश्वाचे हरिसी भान ! | |
| गोपि तुझ्या हिरव्या वेली | रास खेळती भंवतालीं ! | |
| तुझ्या वेणुचा सूर तरी | चराचरावर राज्य करी ! | |
| काव्यदेविचा प्राण खरा | तूंच निर्झरा ! कवीश्वरा ! | |
| या दिव्याच्या धुंदिगुणें | दिव्याला गासी गाणें. | |
| मी कवितेचा दास, मला | कवी बोलती जगांतला, | |
| परि न झरे माझ्या गानीं | दिव्यांची असली श्रेणी ! | |
| जडतेला खिळुनी राही | हृदयबंध उकलत नाही ! | |
| दिव्यरसीं विरणें जीव | जीवित हें याचे नांव; | |
| तें जीवित न मिळे मातें | मग कुठुनी असलीं गीतें ? | |
| दिव्यांची सुंदरमाला | ओंवाळी अक्षय तुजला ! | |
| तूंच खरा कविराज गुणी | सरस्वतीचा कंठमणि | |
| अक्षय तव गायन वाहे | अक्षयांत नांदत राहे ! | |
| शिकवी रे, शिकवी मातें | दिव्य तुझी असलीं गीतें ! | |
| फुलवेली—लहरी असल्या | मम हृदयीं उसळोत खुल्या ! | |
| वृत्तिलता ठायींठायीं | विकसूं दे सौंदर्याहीं ! | |
| प्रेमझरी—काव्यस्फूर्ति | ती आत्मज्योती चित्तीं | |
| प्रगटवुनी चौदा भुवनीं | दिव्य तिचें पसरी पाणी ! | |
| अद्वैताचें राज्य गडे ! | अविच्छिन्न मग चोहिंकडे ! | |
| प्रेमशांतिसौंदर्याहीं | वेडावुनि वसुधामाई | |
| मम हृदयीं गाईल गाणीं | रम्य तुझ्या झुळझुळ वाणी ! | |
| आणि जसें सगळें रान | गातें तव मंजुळ गान, | |
| तेंवि सृष्टिची सतार ही | गाईल मम गाणीं कांहीं ! |
— बालकवी
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